शरद व्यास की fb वाल से.....
काफी लम्बे समय से किराडू के मंदिरों को देखने की अभिलाषा थी हालांकि मेरे पिताजी बाड़मेर में जनरल हॉस्पिटल में डॉक्टर थे और हम दस साल से भी ज्यादा वर्षो तक बाड़मेर में रहे मगर तब कभी भी किराडू जाना नहीं हो पाया बस मन की मन में ही रह गई मगर पिछले दिनों मै और मेरे अजीज मित्र भारत आचार्य (सिद्धू) जो की बाड़मेर में ही रहते है और रेवेन्यु इंस्पेक्टर है ने किराडू के मंदिरों को देखने का प्रोग्राम बनाया और मै बाड़मेर पहुच गया|किराडू के मंदिरों में भारतीय पुरातत्व विभाग के केयर टेकर गुलाब सिंह जी (9784844702) का रवैया बड़ा सहयोगात्मक रहा | सभी मंदिरों और मूर्तियों की मैंने तक़रीबन दो सौ से भी ज्यादा फोटोग्राफ्स खिंची होंगी मगर तब भी मन नही भरा और ऐसा लगा की काफी कुछ बाकी रह गया है| किराडू फोटोग्राफर्स के लिए स्वर्ग है|
बाड़मेर से पाकिस्तान की सीमा से सटे सरहदी भारतीय कस्बे मुनाबाब जाने वाले मार्ग पर तीस किलोमीटर आगे हाथमा गाँव के पास और खडीन रेलवे स्टेशन के पास में स्थित है किराडू के प्राचीन मंदिर, जो की तत्कालीन भारत की अद्भुत स्थापत्य कला और उन्नत संस्कृति का सबसे अच्छा उदाहरण है| जब कोई कला अपने सर्वोच्च आयाम को छूती है तो उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है उसे केवल अनुभूत किया जा सकता है किराडू के मंदिरों का स्थापत्य भी शायद मंदिर स्थापत्य कला का उच्चतम बिंदु है जिसे शब्दों में समेटा नहीं जा सकता है इसे केवल अनुभूत किया जा सकता है |आप एक बार जब इन मंदिरों के भग्न अवशेषों को देखेंगे तो आप भी मुझसे अवश्य सहमत हो जायेंगे| १० और ११ वी शताब्दी में निर्मित किराडू के मंदिर तत्कालीन राजस्थान की स्थापत्य कला का सही मायनों में प्रत्निधित्व करते है उसके बाद निर्मित राजस्थान के मंदिरों में गुजरात (सोलंकी) की स्थापत्य कला का प्रभाव परिलक्षित होने लग गया ( कृष्णा देवा- टेम्पलस ऑफ़ नार्थ इंड़िया )
किराडू के मंदिर परिसर में मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही थोडा आगे बायीं और उंची वेदी पर दो मंदिर बने हुवे है जिसमे दुसरा शिव पंचायतन शैली का मुख्य मंदिर है जो की अन्य मंदिरों की तुलना में विशाल और द्वार मंडप , महामंड़प, अंतराल, गर्भ गृह आदि कक्षों की सरंचना से युक्त है| इसे सोमेश्वर का मंदिर कहते है संभवत इसका निर्माण सोमेश्वर ने करवाया था |शिव पंचायतन शैली में बने इस मंदिर पर बाहर की और उकेरी हुई मुर्तिया इसे खजुराहो के मंदिरों की कतार में ले आती है मूर्तियों में काम कला के विभन्न आसनों को और मनोदशाओ को दर्शाया गया है जिसमे विपरीत मुद्रा में मैथुन ,पशु मैथुन और सामूहिक मैथुन दर्शाए गए है एक मूर्ति में एक नायिका को, नायक को अन्य स्त्री के साथ मैथुन करते देख अपने दोनों हाथो को आँखों पे रखा हुवा दर्शाया गया है|
इन मूर्तियों को देख कर प्रतीत होता है की मूर्तिकार ने वात्स्यान के कामसूत्र से प्रेरित होकर ये मुर्तिया बनाई हो| कुछ मूर्तियों में रामायण से जुड़े प्रसंग दर्शाए गए है जिसमे लक्ष्मण बाण लगने पर मुर्छित दशा में दर्शाये गये है जिसमे उनका सर श्री राम की गोद में है और आस पास वानर दर्शाए गए है| एक मूर्ति में हनुमानजी को संजीवनी बूटी के लिए पर्वत उठाये दर्शाया गया है|कुछ मूर्तियों में महाभारत से जुड़े प्रसंगों को भी दर्शाया गया है जिसमे सबसे अद्भुत है भीष्म को तीरों की शैया पे लेटे हुवे दर्शाया गया है|युद्ध करते हुवे शिल्प, नर्तकियो के और रास रंग और आमोद प्रमोद दर्शाते हुई शिल्प और समुद्र मंथन और शेष शैया पर सोते हुवे विष्णु भगवान् की मुर्तिया अद्भुत है |
एक मूर्ति में चार धड और मध्य में एक मुख दिखाया गया है और उसे इसे संयोजित किया गया है की जिस धड की तरफ से देखो तो मुख उसी धड का लगता है| दोनों मंदिरों के सामने एक ऊँची वेदी पर एक मंदिर बना हुवा है उसके पीछे एक और मंदिर बना हुवा है और सबसे पीछे पुन एक विशाल मंदिर बना हुवा है जिसका मंडप अभी तक सुरक्षित है और मंडप और मंडप के आठ अलंकृत स्तंभों पे उकेरी हुई मुर्तिया और प्रवेश तथा गर्भ गृह की तरफ वाले दो स्तंभों के मध्य बने तोरण पर की गई कारीगिरी अद्भुत है| किराडू के मंदिरों की मूर्तियों में तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्थिति से सम्बंधित शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो अनछुआ रह गया हो , किराडू के शिल्पकारो ने तक़रीबन सभी विषयो को समेट लिया है|
किराडू के सोमेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करते ही दो बायीं और तथा एक दायी और कुल तीन शिलालेख लगे हुवे है जिसमे पहले शिलालेख ( देखे फोटोग्राफ ) जो की गुजरात के चालुक्य शासक कुमारपाल के सामंत आल्हणदेव के समय का है जिसमे माघ कृष्ण 14 संवत १२०९ का तदनुसार 24 जनवरी 1153, शानिवार का है इस शिलालेख की कई पंक्तिया बीच में से नष्ट हो चुकी है| इस शिलालेख में कुमारपाल के नाम के उल्लेख के बाद महादेव का नाम आता है जो की मुहर , व्यापार आदि का व्यवस्थापक था| कुम्हार पाल के सामंत आल्हणदेव के सम्बन्ध में प्रशस्तिकार लिखता है की उसने शिवरात्री को पशुवध निरोध की आज्ञा अपने हस्ताक्षर से निकाली और मॉस के दोनों पक्षों की अष्टमी, एकादशी और चतुर्दर्शी को पशुवध की रुकावट की| पुरोहितो और अमात्यो को भी इसके पालन के लिए आदेश दिया गया|
आज्ञा का उल्लंघन करने वाले साधारण नागरिक से पांच द्रम और राजा के सम्बन्धी से १ द्रंम दंड लिए जाने की व्यवस्था की| इस आज्ञा पर महाराज कुमार कल्हण व गजसिंह की साक्षी है | लेख की रचना संधिविग्राहिक खोलादित्य ने की और नाडोल निवासी पोरवाड जाति के शुभंकर के पुत्रो पुतिग और शालिग ने इस आज्ञा को प्रसारित किया|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ८६ और ८७ ) इस शिलालेख से तत्कालीन शासको की मानवीयता और पशुओ के प्रति करुणता और उनके अधीन सामंतो द्वारा राजाज्ञा के पालन की प्रतिबद्धता के बारे में पता चलता है|
दूसरा अभिलेख का समय संवत १२१८ आश्विन शुक्ल १ ,गुरुवार तदनुसार 21 सितम्बर 1161 ईसवी है| इस अभिलेख में किराडू की परमार वंश की शाखा की वंशावली अंकित की गई है जिसमे परमार सिन्धु राज से लेकर सोमेश्वर तक का वंशक्रम है| इस लेख में परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ ऋषि के आबू यज्ञ से बताई गई है| इसमें सिन्धुराज को मारवाड़ का शासक बताया गया है सिन्धुराज के पुत्र का नाम उत्पलराज दिया गया है किन्तु उसके उपरान्त दो पीढियों के नाम मिट चुके है उसके बाद धरणीवराह और देवराज का नाम आता है जिसने संभवत देवराजेश्वर का मंदिर बनवाया था| फिर धुंधक का नाम आता है जिसने चालुक्य दुर्लभ राज की कृपा से मरू प्रदेश पर शासन किया था फिर कृष्णराज और सोच्छराज का नाम आता है| सोच्चराज का पुत्र उदयराज चालुक्य उदयराज का सामंत था जिसने चोड,गोड,कर्नाटक, और मालवा विजित किये थे|
इसी तरह इसमें चालुक्य सिन्धुराज और कुमारपाल की कृपा से उदयराज के पुत्र सोमेश्वर का संकेत मिलता है जिसने किराटकूप और शिवकूप में अपनी शक्ति को संगठित किया था|उसके द्वारा जज्जक को पराजित करने और 1700 घोड़े उससे लेने का वर्णन दिया गया है|इस लेख में विक्रम संवत १२१८ में जज्जक के साथ हुवे युद्ध का समय सूर्योदय के साढ़े चार घंटे बाद का दिया गया है| इस अभिलेख में सोमेश्वर की तन्नुकोट (जैसलमेर) और नौसार (जोधपुर) की विजय का उल्लेख मिलता है|इस प्रशस्ति का प्रशस्तिकार नरसिंह तथा लेखक यशोदेव और उत्कीर्णक यशोधर था|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ९० और ९१ )
तीसरे अभिलेख का अधिकाँश भाग नष्ट हो चूका है इसका समय कार्तिक शुक्ल १३, गुरूवार संवत १२३५ तदनुसार 26 अक्टूम्बर 1178 है | यह किराडू के महाराजपुत्र मदनब्रम्हदेव चौहान (शाकम्भरी) के समय का है जो भीमदेव द्वितीय का सामंत था| तेजपाल, किराडू का शासन देखता था तेजपाल की स्त्री ने जब तुर्रुक्को (तुर्कों) द्वारा मंदिर की मूर्ति को तोडा हुवा पाया तो उसने उक्त तिथि को नई मूर्ति की स्थापना करवाई और मदनब्रम्हदेव द्वारा मंदिर की पूजा के लिए दो विंशोपक एवं दीपक के लिए तेल की व्यवस्था की गई|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ९६ और ९७ )
किराडू के बारे में कहा जाता है की इसका प्राचीन नाम किरात कूप था जो की संभवत यहाँ निवास करने वाली वनवासी किरात जाति के कारण पड़ा होगा |महाभारत में किरात जाति का उल्लेख आता है जो की शिव और पार्वती की पूजा किया करते थे पांड्वो के वनवास के दौरान अर्जुन का किरात सरदार वेश में शिवजी से मल्ल युद्ध का प्रसंग भी आता है जिसमे अर्जुन परास्त होकर और गर्व भंग होने के उपरान्त जब ग्लानीयुक्त अपने अराध्य शिव भगवान् का पूजन करते है और शिव लिंग पर जो पुष्प माला अर्पित करते है उस ही माला को किरात सरदार के गले में देखकर उन्हें अपनी भूल का अहसास होता है और वो अपने अराध्य देव के चरणों में गिर उनसे क्षमा मांगते है और शिवजी प्रसन्न होकर अर्जुन को ब्रम्हास्त्र प्राप्त करने के लिए इन्द्रलोक जाने की आज्ञा देते है और ताकि युद्ध में कौरवो को परास्त किया जा सके| डा मोहनलाल गुप्ता के अनुसार महाभारत के ही एक प्रसंग में किराडू में रहने वाले किरात जाति के वनवासी दुर्योधन को उठा कर ले गए थे जिसे बाद में युधिस्ठिर के कहने पर भीम और अर्जुन दुर्योधन को किरातो से छुडाकर लाये थे |
किराडू के बारे में एक और कथा प्रचलित है की प्राचीन काल में एक ऋषि थे जिन्होंने किराडू से यात्रा पे जाते समय अपने कुछ शिष्यों को किराडू नगर में छोड़ा था और नगर के निवासियों से उनका ध्यान रखने और देखभाल करने के लिए कहा था मगर एक कुम्हारन को छोड़ किसी ने उनकी सुध नहीं ली और जब वो ऋषि अपनी यात्रा से वापस लौटे और अपने शिष्यों को बीमार और भूखे प्यासा पाया तो क्रोध में भर कर उन्होंने कुम्हारन स्त्री को छोड़ समस्त ग्राम वासियों को शाम होते ही पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया जिससे शाम होते ही समस्त नगर वासी पत्थर के बन गए |
ऋषि ने कुम्हारन स्त्री को कहा की वो भी शाम होने से पहले नगर छोड़ के चली जाए और भूल कर भी पीछे मुड कर नहीं देखे अन्यथा वो भी पत्थर की बन जायेगी किन्तु उस कुम्हारन ने भी ऋषि की बात भूलकर कौतुहल वश जाते समय अपने नगर को पीछे मुड कर देख लिया और वो भी पत्थर की बन गई| आज भी कुछ लोगो में ये अंधविश्वास है की जो भी किराडू में सूर्य अस्त होने के बाद रुकता है वो पत्थर का बन जाता है |इसलिए हम लोग भी शाम होने से पहले पहले बिना मुड़े वापस सही सलामत बाड़मेर लौट आये और जब दिन भर से भूख से कुलबुलाते विप्र बंधुओ ने शाम को खैरतल स्टाइल के खिच्च को कढ़ी ,पापड और छाछ के साथ डट कर इतना खाया की हम भी मूर्ति बन गए |
शरद व्यास, 19 अक्टूबर 2016, उदयपुर
बाड़मेर से पाकिस्तान की सीमा से सटे सरहदी भारतीय कस्बे मुनाबाब जाने वाले मार्ग पर तीस किलोमीटर आगे हाथमा गाँव के पास और खडीन रेलवे स्टेशन के पास में स्थित है किराडू के प्राचीन मंदिर, जो की तत्कालीन भारत की अद्भुत स्थापत्य कला और उन्नत संस्कृति का सबसे अच्छा उदाहरण है| जब कोई कला अपने सर्वोच्च आयाम को छूती है तो उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है उसे केवल अनुभूत किया जा सकता है किराडू के मंदिरों का स्थापत्य भी शायद मंदिर स्थापत्य कला का उच्चतम बिंदु है जिसे शब्दों में समेटा नहीं जा सकता है इसे केवल अनुभूत किया जा सकता है |आप एक बार जब इन मंदिरों के भग्न अवशेषों को देखेंगे तो आप भी मुझसे अवश्य सहमत हो जायेंगे| १० और ११ वी शताब्दी में निर्मित किराडू के मंदिर तत्कालीन राजस्थान की स्थापत्य कला का सही मायनों में प्रत्निधित्व करते है उसके बाद निर्मित राजस्थान के मंदिरों में गुजरात (सोलंकी) की स्थापत्य कला का प्रभाव परिलक्षित होने लग गया ( कृष्णा देवा- टेम्पलस ऑफ़ नार्थ इंड़िया )
किराडू के मंदिर परिसर में मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही थोडा आगे बायीं और उंची वेदी पर दो मंदिर बने हुवे है जिसमे दुसरा शिव पंचायतन शैली का मुख्य मंदिर है जो की अन्य मंदिरों की तुलना में विशाल और द्वार मंडप , महामंड़प, अंतराल, गर्भ गृह आदि कक्षों की सरंचना से युक्त है| इसे सोमेश्वर का मंदिर कहते है संभवत इसका निर्माण सोमेश्वर ने करवाया था |शिव पंचायतन शैली में बने इस मंदिर पर बाहर की और उकेरी हुई मुर्तिया इसे खजुराहो के मंदिरों की कतार में ले आती है मूर्तियों में काम कला के विभन्न आसनों को और मनोदशाओ को दर्शाया गया है जिसमे विपरीत मुद्रा में मैथुन ,पशु मैथुन और सामूहिक मैथुन दर्शाए गए है एक मूर्ति में एक नायिका को, नायक को अन्य स्त्री के साथ मैथुन करते देख अपने दोनों हाथो को आँखों पे रखा हुवा दर्शाया गया है|
इन मूर्तियों को देख कर प्रतीत होता है की मूर्तिकार ने वात्स्यान के कामसूत्र से प्रेरित होकर ये मुर्तिया बनाई हो| कुछ मूर्तियों में रामायण से जुड़े प्रसंग दर्शाए गए है जिसमे लक्ष्मण बाण लगने पर मुर्छित दशा में दर्शाये गये है जिसमे उनका सर श्री राम की गोद में है और आस पास वानर दर्शाए गए है| एक मूर्ति में हनुमानजी को संजीवनी बूटी के लिए पर्वत उठाये दर्शाया गया है|कुछ मूर्तियों में महाभारत से जुड़े प्रसंगों को भी दर्शाया गया है जिसमे सबसे अद्भुत है भीष्म को तीरों की शैया पे लेटे हुवे दर्शाया गया है|युद्ध करते हुवे शिल्प, नर्तकियो के और रास रंग और आमोद प्रमोद दर्शाते हुई शिल्प और समुद्र मंथन और शेष शैया पर सोते हुवे विष्णु भगवान् की मुर्तिया अद्भुत है |
एक मूर्ति में चार धड और मध्य में एक मुख दिखाया गया है और उसे इसे संयोजित किया गया है की जिस धड की तरफ से देखो तो मुख उसी धड का लगता है| दोनों मंदिरों के सामने एक ऊँची वेदी पर एक मंदिर बना हुवा है उसके पीछे एक और मंदिर बना हुवा है और सबसे पीछे पुन एक विशाल मंदिर बना हुवा है जिसका मंडप अभी तक सुरक्षित है और मंडप और मंडप के आठ अलंकृत स्तंभों पे उकेरी हुई मुर्तिया और प्रवेश तथा गर्भ गृह की तरफ वाले दो स्तंभों के मध्य बने तोरण पर की गई कारीगिरी अद्भुत है| किराडू के मंदिरों की मूर्तियों में तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्थिति से सम्बंधित शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो अनछुआ रह गया हो , किराडू के शिल्पकारो ने तक़रीबन सभी विषयो को समेट लिया है|
किराडू के सोमेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करते ही दो बायीं और तथा एक दायी और कुल तीन शिलालेख लगे हुवे है जिसमे पहले शिलालेख ( देखे फोटोग्राफ ) जो की गुजरात के चालुक्य शासक कुमारपाल के सामंत आल्हणदेव के समय का है जिसमे माघ कृष्ण 14 संवत १२०९ का तदनुसार 24 जनवरी 1153, शानिवार का है इस शिलालेख की कई पंक्तिया बीच में से नष्ट हो चुकी है| इस शिलालेख में कुमारपाल के नाम के उल्लेख के बाद महादेव का नाम आता है जो की मुहर , व्यापार आदि का व्यवस्थापक था| कुम्हार पाल के सामंत आल्हणदेव के सम्बन्ध में प्रशस्तिकार लिखता है की उसने शिवरात्री को पशुवध निरोध की आज्ञा अपने हस्ताक्षर से निकाली और मॉस के दोनों पक्षों की अष्टमी, एकादशी और चतुर्दर्शी को पशुवध की रुकावट की| पुरोहितो और अमात्यो को भी इसके पालन के लिए आदेश दिया गया|
आज्ञा का उल्लंघन करने वाले साधारण नागरिक से पांच द्रम और राजा के सम्बन्धी से १ द्रंम दंड लिए जाने की व्यवस्था की| इस आज्ञा पर महाराज कुमार कल्हण व गजसिंह की साक्षी है | लेख की रचना संधिविग्राहिक खोलादित्य ने की और नाडोल निवासी पोरवाड जाति के शुभंकर के पुत्रो पुतिग और शालिग ने इस आज्ञा को प्रसारित किया|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ८६ और ८७ ) इस शिलालेख से तत्कालीन शासको की मानवीयता और पशुओ के प्रति करुणता और उनके अधीन सामंतो द्वारा राजाज्ञा के पालन की प्रतिबद्धता के बारे में पता चलता है|
दूसरा अभिलेख का समय संवत १२१८ आश्विन शुक्ल १ ,गुरुवार तदनुसार 21 सितम्बर 1161 ईसवी है| इस अभिलेख में किराडू की परमार वंश की शाखा की वंशावली अंकित की गई है जिसमे परमार सिन्धु राज से लेकर सोमेश्वर तक का वंशक्रम है| इस लेख में परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ ऋषि के आबू यज्ञ से बताई गई है| इसमें सिन्धुराज को मारवाड़ का शासक बताया गया है सिन्धुराज के पुत्र का नाम उत्पलराज दिया गया है किन्तु उसके उपरान्त दो पीढियों के नाम मिट चुके है उसके बाद धरणीवराह और देवराज का नाम आता है जिसने संभवत देवराजेश्वर का मंदिर बनवाया था| फिर धुंधक का नाम आता है जिसने चालुक्य दुर्लभ राज की कृपा से मरू प्रदेश पर शासन किया था फिर कृष्णराज और सोच्छराज का नाम आता है| सोच्चराज का पुत्र उदयराज चालुक्य उदयराज का सामंत था जिसने चोड,गोड,कर्नाटक, और मालवा विजित किये थे|
इसी तरह इसमें चालुक्य सिन्धुराज और कुमारपाल की कृपा से उदयराज के पुत्र सोमेश्वर का संकेत मिलता है जिसने किराटकूप और शिवकूप में अपनी शक्ति को संगठित किया था|उसके द्वारा जज्जक को पराजित करने और 1700 घोड़े उससे लेने का वर्णन दिया गया है|इस लेख में विक्रम संवत १२१८ में जज्जक के साथ हुवे युद्ध का समय सूर्योदय के साढ़े चार घंटे बाद का दिया गया है| इस अभिलेख में सोमेश्वर की तन्नुकोट (जैसलमेर) और नौसार (जोधपुर) की विजय का उल्लेख मिलता है|इस प्रशस्ति का प्रशस्तिकार नरसिंह तथा लेखक यशोदेव और उत्कीर्णक यशोधर था|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ९० और ९१ )
तीसरे अभिलेख का अधिकाँश भाग नष्ट हो चूका है इसका समय कार्तिक शुक्ल १३, गुरूवार संवत १२३५ तदनुसार 26 अक्टूम्बर 1178 है | यह किराडू के महाराजपुत्र मदनब्रम्हदेव चौहान (शाकम्भरी) के समय का है जो भीमदेव द्वितीय का सामंत था| तेजपाल, किराडू का शासन देखता था तेजपाल की स्त्री ने जब तुर्रुक्को (तुर्कों) द्वारा मंदिर की मूर्ति को तोडा हुवा पाया तो उसने उक्त तिथि को नई मूर्ति की स्थापना करवाई और मदनब्रम्हदेव द्वारा मंदिर की पूजा के लिए दो विंशोपक एवं दीपक के लिए तेल की व्यवस्था की गई|(राजस्थान के इतिहास के स्रोत –डा गोपीनाथ शर्मा, पृष्ठ संख्या ९६ और ९७ )
किराडू के बारे में कहा जाता है की इसका प्राचीन नाम किरात कूप था जो की संभवत यहाँ निवास करने वाली वनवासी किरात जाति के कारण पड़ा होगा |महाभारत में किरात जाति का उल्लेख आता है जो की शिव और पार्वती की पूजा किया करते थे पांड्वो के वनवास के दौरान अर्जुन का किरात सरदार वेश में शिवजी से मल्ल युद्ध का प्रसंग भी आता है जिसमे अर्जुन परास्त होकर और गर्व भंग होने के उपरान्त जब ग्लानीयुक्त अपने अराध्य शिव भगवान् का पूजन करते है और शिव लिंग पर जो पुष्प माला अर्पित करते है उस ही माला को किरात सरदार के गले में देखकर उन्हें अपनी भूल का अहसास होता है और वो अपने अराध्य देव के चरणों में गिर उनसे क्षमा मांगते है और शिवजी प्रसन्न होकर अर्जुन को ब्रम्हास्त्र प्राप्त करने के लिए इन्द्रलोक जाने की आज्ञा देते है और ताकि युद्ध में कौरवो को परास्त किया जा सके| डा मोहनलाल गुप्ता के अनुसार महाभारत के ही एक प्रसंग में किराडू में रहने वाले किरात जाति के वनवासी दुर्योधन को उठा कर ले गए थे जिसे बाद में युधिस्ठिर के कहने पर भीम और अर्जुन दुर्योधन को किरातो से छुडाकर लाये थे |
किराडू के बारे में एक और कथा प्रचलित है की प्राचीन काल में एक ऋषि थे जिन्होंने किराडू से यात्रा पे जाते समय अपने कुछ शिष्यों को किराडू नगर में छोड़ा था और नगर के निवासियों से उनका ध्यान रखने और देखभाल करने के लिए कहा था मगर एक कुम्हारन को छोड़ किसी ने उनकी सुध नहीं ली और जब वो ऋषि अपनी यात्रा से वापस लौटे और अपने शिष्यों को बीमार और भूखे प्यासा पाया तो क्रोध में भर कर उन्होंने कुम्हारन स्त्री को छोड़ समस्त ग्राम वासियों को शाम होते ही पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया जिससे शाम होते ही समस्त नगर वासी पत्थर के बन गए |
ऋषि ने कुम्हारन स्त्री को कहा की वो भी शाम होने से पहले नगर छोड़ के चली जाए और भूल कर भी पीछे मुड कर नहीं देखे अन्यथा वो भी पत्थर की बन जायेगी किन्तु उस कुम्हारन ने भी ऋषि की बात भूलकर कौतुहल वश जाते समय अपने नगर को पीछे मुड कर देख लिया और वो भी पत्थर की बन गई| आज भी कुछ लोगो में ये अंधविश्वास है की जो भी किराडू में सूर्य अस्त होने के बाद रुकता है वो पत्थर का बन जाता है |इसलिए हम लोग भी शाम होने से पहले पहले बिना मुड़े वापस सही सलामत बाड़मेर लौट आये और जब दिन भर से भूख से कुलबुलाते विप्र बंधुओ ने शाम को खैरतल स्टाइल के खिच्च को कढ़ी ,पापड और छाछ के साथ डट कर इतना खाया की हम भी मूर्ति बन गए |
शरद व्यास, 19 अक्टूबर 2016, उदयपुर
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