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जानिए बाडमेर की होली की ऐतिहासिक यात्रा अब तक,और बाड़मेर के ईलोजी की कहानी

होली के अद्भुत देवता ईलोजी।


बाड़मेर होली का त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास, उमंग, विशेष उत्साह एवं उछड़कूद के साथ देश के कौने-कौने में मनाया जाता है। चारों ओर रंग-बिरंगी पिचकारियों की बौछारे बरसती नजर आती है। अनेकों रंगों, गुलाल एवं अबीर होली के आकर्षण बने रहते हैं। विशाल देश जिसमें अनकों धर्म, जाति, सम्प्रदाय के लोग निवास करते है लेकिन होली के इस रंगीन त्यौहार को सभी मिल जुलकर मनाते है। राष्ट्रीय एकता, आत्मीयता, बन्धुत्व की भावना इस त्यौहार में दिखार्इ देती है। यह त्यौहार देश के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न तौर तरीकों के साथ मनाया जाता है। कहीं लठ मार होली चलती है, तो कहीं रंग गुलाल उड़ते है। कहीं भाभी देवरों के बीच होली है तो कहीं बेत की मार देखने को मिलती है। कहीं कीचड़ एवं धूल भरी होली खेली जाती है तो कहीं पत्थरों की बौछारे भी होती है। विभिन्न प्रकार की होली खेलने पर भी अनेकों रंग इस त्यौहार में रंगीनी ले ही आते है। राग फाग, संग का साथ, नृत्यों की थरकन, मस्ती की मल्हार, गधों की सवारी, जिन्दों का जनाजा इस त्यौहार के अलबेले आकर्षण होते है।


होली के इस त्यौहार पर अदभूत देवता र्इलोजी का पूजन राजस्थान प्रदेश के अनेकों स्थानों पर बड़े ही चाव से किया जाता है। र्इलोजी होली के देवता है जिसे फागण देवता से भी राजस्थान में सम्बोधित किया जाता है। जो शहरों एवं कस्बों के मध्य भाग में, आम चौराहों पर और जहां जनमानस का अधिकाधिक आवागमन होता है वहां इसकी स्थापना की जाती है। यह र्इलोजी एक विशाल बैठी हुर्इ प्रतिमा होती है। कहीं पर भी र्इलोजी की खड़ी अथवा सोर्इ हुर्इ प्रतिमा का निर्माण देखने को नहीं मिला है। यह पाषाणों, र्इटों आदि की चुनार्इ से इसका निर्माण किया जाता है। जिस पर प्लास्टर कर इसे मनुष्य की आकृति में बदल दिया जाता है। सिर पर सुन्दर पाग-साफा, कानों में कुण्डल, गले में हार, गोल मटोल चेहरा, चमकती हुर्इ विशाल आंखें, हाथों की भुजाओं पर बाजुबन्द, कलार्इयों में कंगन, भारी भरकम शरीर, फैला हुआ पेट, विशाल पैरों के घुटनों को आगे किये हुए यह र्इलोजी होते है। लिंग का स्थान विशेष तौर से बनाया जाता है। इनके शरीर पर विभिन्न रंगों की रंगीनी की जाती है। जो प्रतिमा की सुन्दरता में चार चांद जड़ देते है। होली के दिन इस प्रतिमा को सुन्दर वस्त्रों से भी सुशोभित किया जाता है और कहीं-कहीं पर वस्त्रों के स्थान पर रंग ही प्रतिमा पर पोत दिये जाते है जिससे प्रतिमा अति आकर्षक दिखार्इ देती है। सिर पर बनी पाग में दुल्हों की भांति कलंगी, तुरे, मोर आदि लगाये जाते है और गले में हार पहनाया जाता है। हाथों में नारियल थमा देते है। 


कौन थे ईलोजी


यह र्इलोजी कौन थे, इनका पूजन क्यों किया जाता है, इनको इतना सजाया और संवारा क्यों जाता है यह विचारणीय प्रश्न सामने खड़ा होना स्वाभाविक है। बड़े बजुर्गो के कथनासुार र्इलोजी नासितक राजा हिरण्यकश्यप के होने वाले बहनोर्इ थे। जो इसकी बहन होलिका से शादी करने के लिये दुल्हे की वेशभूषा में बनठनकर विशाल बरात लेकर आये थे। लेकिन निर्दयी राजा हिरण्यकश्यप प्रहलाद को जिन्दा जलाने के लिये अगिन से न जलने का वरदान प्राप्त अपनी बहन होलिका की गोद में उसे धधकती चित्ता में बिठा दिया। अगिन की धूं-धूं में होलिका जलकर राख हो गर्इ और प्रहलाद सकुशल बच गया। आसितक प्रहलाद ने नासितक राजा हिरण्यकश्यप पर विजय अवश्य ही प्राप्त की लेकिन र्इलोजी ने अपने होने वाली वधु को सदा-सदा के लिये खो दिया। इस गम में इन्होंने जली हुर्इ होलिका की राख को अपने शरीर पर मलकर अपनी इच्छा को पूर्ण किया और आजीवन अखण्ड कुंवारे रह गये। इसी कारण होली का दूसरा दिन धूलेली अर्थत धूलभरी होली के रूप में मनाया जाता है। इसी प्रकार दंतकथाओं के अनुसार ये शहर एवं कस्बों के रक्षक देवता के रूप में इनकी स्थापना की जाती है । 

कहा जाता है कि ये क्षेत्रपाल, भैरू का रूप है। जो कि अक्सर बांझ महिलाओं को पुत्र दिया करते है। इस सम्बन्ध में अनेकों कथाऐं विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक सेठ के कार्इ पुत्र नहीं हुआ। र्इलोजी की होली के दिन लिंग पूजा की गर्इ और उसे पुत्र की प्रापित हुर्इ। याचना के अनुसार उसे जीवित पाडे-भैसे की बलि देनी थी लेकिन सेठ ने हत्या न करके भैसे को र्इलोजी-क्षेत्रपाल-भैरू की प्रतिमा के बांध कर चला गया। कुछ समय पश्चात भैसा रस्सी समेत प्रतिमा को उखाड़ कर घसीटता हुआ भागने लगा। रास्ते में एक देवी ने र्इलोजी की यह दशा देखी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगी और मजाक करने लगी। तब र्इलोजी ने आवेश में आकर कहा कि तू तो मठ में बैठी मटका करे है सेठ ने बेटा कोनी दिया। मैं दिया जको म्हारो हाल देख। उसी दिन से र्इलोजी मजाक का प्रतीक बन बैठा। आज भी र्इलोजी को होली के कुछ दिन पूर्व में ही हर्षोल्लास के साथ सजाया संवारा जाता है। अनेकों राग फाग इनके जीवन पर गार्इ जाती है । जिसमें र्इलोजी रो विया आयो लगनिया कुण लिखसी रे आदि राग फाग के तौर पर अपने सगे सम्बनिधयों, मित्रों, हमझोलियों की मजाक को जोड़कर गाते है। होलिका के जलने के कारण र्इलोजी डोकरो गले रे बांध्यों टोकरों। इन्हीं र्इलोजी की होली के दिन खूब पूजा की जाती है। 

कहा जाता है कि र्इलोजी का एक ही चमत्कार प्रसिद्ध है कि यह बांझ स्त्रियों को पुत्र देते है जिसके कारण इनके लिंग की पूजा की जाती है। होली के दिन र्इलोजी की पूजा हेतु नारियल चढाये जाते है। अगरबत्तियों का धूप किया जाता है। लिंग पर कुंकुम के छींटे दिये जाते है और उन पर पुष्प बरसाये जाते है। लेकिन आजकल युवा वर्ग द्वारा भददी गालियों में राग फाग गाने के कारण महिलाओं द्वारा र्इलोजी का पूजन कम होने लगा है। कहीं-कहीं अंध श्रद्धालू महिलाएं इन भददी हरकतों के बीच भी र्इलोजी का पूजन करती है। मजाक का मजमा होली के दूसरे दिन नता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं। र्इलोजी की प्रतिमा के पास जमा रहता है। यदि वृद्धावस्था में किसी की पत्नी मर जाय और दूसरी पत्नी मिलनी दुर्लभ हो जाय, किसी लम्बी उम्र में शादी न हो और न होने की पूर्ण सम्भावना हो तो मजाक में कहते है कि र्इलोजी रो लिंग पूज नहीं तो इणोरी तरह कंवारो रह जासी। गन्दे गीत, गाली गलौच भरी फाग राग र्इलोजी के जीवन को अंकित करते हुए गार्इ जाती है। जिसमें संभोग की विभिन्न क्रियाओं का चित्रण बेहुदी तरीके से किया जाता है  र्इलोजी के पास चंग बजाने वालों की अपार भीड़ रहती है जो शादी के समय साज की प्रतीक दिखार्इ देते है । रंगों की बौछार इनकी शादी की खुशी का वातावरण बताती है। इनकी सजावट दुल्हे की याद दिलाती है और होलिका की याद में चिर समाधि इसकी चित्ता के पास लगाकर आजीवन कंवारा रहने की स्मृति ताजा करती है। अज्ञान, अंधविश्वासी बांझ सित्रयां पुत्र प्रापित हेतु इनकी पूजा करती है वहीं युवा वर्ग ऐसे समय में अपनी शालीनता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं। 

कुछ भी हो र्इलोजी वास्तव में र्इलोजी है । जिनकी स्मृति होली के दिन स्वत: ही हो आती है। यह मजाकिया दिलवालों के राजा है वहां अपनी शक्ल-सूरत से राह चलने वालों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहते। जिन पर प्रतिवर्ष इनकी साज-सजावट के लिये हजारों रूपया व्यय किया जाता है। इनकी प्रतिमाएं चौराहों पर, अनेकों मार्ग निकलने वालों स्थानों पर, मूल बाजार में बनी हुर्इ होती हैं । अक्सर मूत्र्तियां खुली रहती है। कहीं-कहीं इनकी सुरक्षा हेतु जालीदार किवाड़ बना दिये जाते है। लिंग केवल वर्ष भर में होली के दिन ही लगाया जाता है। जहां इनकी विशाल प्रतिमा बिठार्इ जाती है उसके आसपास में यदि कोर्इ बाजार है तो उसका नामकरण र्इलोजी के नाम पर होगा। ऐसे र्इलोजी मार्केट, र्इलोजी चौराहा, र्इलोजी मार्ग, र्इलोजी चौक राजस्थान के अनेकों शहरों एवं कस्बों में है। ऐसे होली के अदभूत देवता र्इलोजी राजस्थान प्रदेश के अनेकों नगरों एवं कस्बों में स्थापित है जहां इनका होली एवं धुलेली के दिन बड़ा महत्व समझा जाता है। बाड़मेर की पत्थर मार होली भारतवर्ष धार्मिक तीज त्यौहारों के लिये जगत विख्यात है। अनेकों धर्म, सम्प्रदायों के नाना प्रकार के त्यौहार इस देश की पुण्य भूमि में मनाये जाते हैं। त्यौहारों की पंकित में होली एक अनोखा त्यौहार है, जो सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग अवश्य मनाते है लेकिन मनाने के तरीके अवश्य ही भिन्न-भिन्न है। 

विशाल देश में होली का त्यौहार कहीं रंग के बौछारों के बीच मनाया जाता है तो कहीं लठ मारकर होली का आनन्द लूटा जाता है। कहीं पर भाभीदेवरों के बीच रंग के साथ होली खेली जाती है तो कहीं पर चंग साज के साथ नाचकूदकर होली का उल्लास प्रकट किया जाता है। होली एक होते हुए भी इसके रूप अनेक बने हुए है। राजस्थान के पशिचमी सीमावत्र्ती बाड़मेर नगर में होली का त्यौहार पत्थरों की लड़ार्इ के बीच मनाया जाता था, जो आजकल रंग की बौछारों, गुलाल की उड़ान के रूप में बदल गया है। होली का यह रंगीला त्यौहार 80-90 वर्ष पूर्व बाड़मेर नगर में पत्थरों की लड़ार्इ से मनाया जाता था। आपसी वैमनस्य, वैरभाव, दुश्मनी को दूर रखते हुए होली का त्यौहार परस्पर पत्थरों की मार के बीच हर्षोल्लास एवं स्नेह के साथ खेला जाता था। इस त्यौहार को खेलने के लिये एक पखवाड़ा पहले तैयारियां आरम्भ हो जाती थी। दो दलों, दो मौहल्लों के बीच यह मोहब्बत की पत्थर मार होली खेली जाती थी। दोनों दलों के लोग अपने मकानों, दुकानों, धार्मिक प्रतिष्ठानों, मनिदरों आदि ऊंची-ऊंची छतों पर पहले से ही पत्थरों के ठेर एकत्रित करके रखते थे और इन पत्थरों की मार से बचने के लिये युद्ध मैदानों में जिस ढ़ाल का उपयोग करते थे उसकी सार सम्भाल की जाती थी । लेकिन यह पत्थर मार होली, होली दहन के दूसरे दिन धूलेड़ी के दिन खूब तबियत के साथ खेली जाती थी। होली दहन के दिन दोनों दलों, दोनों मौहल्लों के बीच अपार स्नेह मिलन होता था और एक-दूसरे को पराजित करने की शर्त लगाते थे। इस दिन चंग के साथ सामूहिक रूप से खूब नाचते एवं गाते भी थे और जैसे ही दूसरे दिन का प्रभात हुआ कि आकाश में पत्थरों की बौछारे चलनी आरम्भ हो जाती थी। मकान, दुकान, धर्मशालाएं, मनिदरों की छतों पर बाड़मेर की गोलाकार रंग-बिरंगी पगड़ी बांधे धोती-तेवटा पहने, कमर कसे, ढ़ाल लिये लोगों की झलकियां देखने को मिलती थी। दो दलों के बीच दोनों ओर से हवा को चीरते हुए पत्थर चलते थे। घरों में भूल से बाहर रखे बर्तन इन पत्थरों के निशान बनकर चकना चूर हो जाते थे । छोटे बालक-बालिकाएं एवं गृहणियां इस लड़ार्इ के दौरान बाहर नहीं निकलती थी। पत्थरों की विचित्र लड़ार्इ के बीच किसी को सिर, हाथ-पांव, आंख आदि पर चोटे लगती थी। लेकिन वे तनिक भी इसकी परवाह किये बिना सामने वाले दल पर पत्थरों की बौछारे करने में अति व्यस्त रहते थे। इस स्नेह पत्थर लड़ार्इ के बीच कर्इ लोग काने बन गये और कर्इयों के सिर भी फूट गये लेकिन इनकी प्रेम की पत्थर मार होली चलती रहती। यदि इस बीच पत्थरों का संग्रह खत्म होता था तो अपनी छतों से कूदकर पुन: पत्थर एकत्रित करने पड़ते थे। इस बीच दूसरे दल वाला मौका पाकर उसे धर दबोचता और लाठियों से पिटार्इ करता। यदि वह अपनी हार स्वीकार करता तो उसे छोड़ दिया जाता। इस हार को स्वीकार न करने वाले कर्इ लोगों ने छत से कूदने पर अपने पैर तुड़वा लिये और जीवन भर लंगड़े बने रहे । लेकिन होली का हार नहीं मानते थे। पत्थरों की यह विचित्र पत्थर मार होली धूलेड़ी के दोपहर तक चलती। उसके पश्चात दोनों दलों के लोग उसी सस्नेह, उल्लास एवं आनन्द के एक-दूसरे से मिलते। घायल मित्रों की मरहम पटटी करने के साथ-साथ सामूहिक रूप से मिष्ठान खाकर खूब गले मिलते थे। यही पत्थरों की होली धीरे-धीरे धूल एवं कीचड़ उछालकर मनार्इ जाने लगी। जो आज भी कहीं-कहीं नगर में देखी जाती है । यह भी विचित्र रूप लिये रहती है। राहगीरों पर खूब दिन खोलकर धूल बरसाने का आनन्द लिया जाता है और कीचड़ से उसके सारे शरीर को पोत दिया जाता है। इस अवसर पर खूब खुलकर होली की फागों में गन्दे गीतोें को गाया जाता है। पुरूषों द्वारा पत्थरों की परस्पर लड़ार्इ की होली, धूल एवं कीचड़ में बदली वहां औरतों द्वारा भी होली के कर्इ दिन पूर्व गालियों में फागे नियमित रूप से रात्रि में गाती थी । कर्इ-कर्इ स्थानों पर जो महिलाएं देर रात तक गालियों भरी फागों गाने के साथ-साथ अभद्र तरीके से नाचकर अपना उल्लास प्रकट करती थी। लेकिन आजकल महिलाओं में कुछ विशेष जाति समुदाय को छोड़कर गाली-गलोच की फागे नहीं गार्इ जाती है। होली पत्थरों की लड़ार्इ से नीचे उतरती हुर्इ शहर का सबसे गन्दे पानी संग्रहित नरगासर तालाब के कीचड़ पोतने एवं हलवार्इयों की भटिटयों की राख और गली की धूल के बीच मनार्इ जाने लगी। ज्यों-ज्यों व्यकित आधुनिक परिवेश में आया त्यों-त्यों इसमें रददोबदल होने लग गया। 

अब होली पर गन्दी गालियों के स्थान पर राष्ट्रीय गीत, विकास के बोल एवं हास्य भरी फागों की धुन छार्इ रहती है। वहां गली की धूल, भटिटयों की राख एवं नरगासर के कीचड़ के स्थान पर रंग और गुलाल ने ले लिया है। धूलेड़ी के दिन अब रंग व गुलाल का ही आमतौर पर प्रयोग किया जाता है लेकिन मजाक के तौर पर आज से शताब्दी पूर्व गधे की सवारी का उपयोग हास्य के रूप में किया जाता था आज भी जारी है । विवाह में विदार्इ के गीत, मजाक के बोल जो महिलाएं गाती है उसे पुरूष, महिलाओं के अदभूत वेष बनाकर गाते और मनोरंजन करते है। श्मशान यात्रा के दृश्य उपसिथत कर इस दिन खूब मजाक किया जाता है। धूलभरी होली, कीचड़ की गन्दी होली से लेकर अब रंग भरी सुहावनी होली में भाभी देवर के बीच बड़े ही उत्साह एवं उमंग के बीच खेली जाती रही है। रंग एवं गुलाल भरी होली से पूर्व भाभी पर देवर पानी की बौछार से तीखी मार करता तब भाभी रस्सी अथवा कपड़े से तैयार सोटे से देवर की खूब तबीयत से पिटार्इ करती है । देवर भाभी की मार एवं तीखी पानी के बौछार से छटपटा जाती तब देवरों की बन आती और जब देवर महाशय की पानी की बाल्टी लुढक जाती तब भाभी के सोटे की बौछार उसे पीडि़त करती। आजकल भाभी देवरों के बीच यह होली खूब जमकर खेली जाती है। आजकल पानी के साथ खूब गहरा रंग डालकर भाभी के बदन के हर अंग को रंग रंगने में देवर आनन्द लेते है । होली के दिन बाड़मेर नगर में एक विराट बैठी हुर्इ आदमकद र्इलोजी की प्रतिमा की रचना की जाती है। उसे खूब सजाया संवारा जाता है। इस र्इलोजी की प्रतिमा की शानदार बट वाली मूछों, दाड़ी बनाने के साथ-साथ शरीर के प्रत्येक अंग को सजाने का सुन्दर प्रयास किया जाता है। सिर पर पाग धारण करार्इ जाती है और उसमें कलंगी और तुरों को बांधा जाता है।

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