बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रकाशित

महात्मा बुद्ध महान समाज सुधारक थे। उस काल में प्रचलित यज्ञ में पशु बलि को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने उसके विरुद्ध जन आंदोलन कर उस क्रूर प्रथा को रुकवाया। महात्मा बुद्ध जैसे अहिंसा के समर्थक एवं बुद्ध धर्म के विषय में दो बातें उनके आंदोलन कि मूलभूत आत्मा अहिंसा के विरुद्ध प्रतीत होती हैं। एक महात्मा बुद्ध कि मृत्यु सूअर का माँस खाने से पेट का संक्रमण होने से होना, द्वितीय बुद्ध को मानने वाले अधिकतर देशों में माँस खाया जाता हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी दयानंद द्वारा यह कथन सबसे अधिक तर्कसंगत सिद्ध होता हैं कि बुद्ध काल में माँसाहार का प्रचलन नहीं था कालांतर में किसी बुद्ध भिक्षु को किसी पक्षी के मुख से गिरा हुआ माँस का टुकड़ा मिला जिसे उसने खा लिया और वही से इस परिपाटी का प्रचलन हो गया कि कोई भी केवल माँस खाने से पापी नहीं बनता, पापी तो पशु का वध करने वाला होता हैं। इस प्रचलन को देखकर मनु स्मृति का माँसाहार विषय पर एक श्लोक स्मरण हो गया।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।

इस श्लोक से स्पष्ट सिद्ध होता हैं कि माँस खाने वाला भी उतना ही पापी हैं जितने पशु हत्या करने वाला पापी हैं। सन्देश यह हैं कि बुद्ध कि पवित्र शिक्षा को मानने वालो को उन्हें यथार्थ में अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए। केवल गेरुआ वस्त्र पहनने और सर मुण्डा कर मठ में रहने भर से व्यक्ति त्यागी और तपस्वी नहीं हो सकता। कोई मुझसे पूछे कि धर्म और अन्धविश्वास में क्या अंतर हैं तो मेरा उत्तर यही होगा कि धर्म सत्य का आचरण हैं जैसा बुद्ध ने निभाया था और अन्धविश्वासी बुद्ध का नाम लेकर माँस खाने वाले बुद्ध लोग हैं जो अज्ञानी हैं।
बुद्ध और ब्राह्मण

(बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रकाशित )

- कार्तिक अय्यर

अपने आपको मूलनिवासी कहने वाले लोग प्राय: ब्राह्मणों को कोसते मिलते हैं, विदेशी कहते हैं, गालियां बकते हैं। पर बुद्ध ने आर्यधर्म को महान कहा है । इसके विपरीत डॉ अंबेडकर आर्यों को विदेशी नहीं मानते थे। अपितु आर्यों होने की बात को छदम कल्पना मानते थे। महात्मा बुद्ध ब्राह्मण, धर्म, वेद, सत्य, अहिंसा , यज्ञ, यज्ञोपवीत आदि में पूर्ण विश्वास रखने वाले थे। महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संग्रह धम्मपद के ब्राह्मण वग्गो 18 का में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते है कि बुद्ध के ब्राह्मणों के प्रति क्या विचार थे।

१:-न ब्राह्नणस्स पहरेय्य नास्स मुञ्चेथ ब्राह्नणो।
धी ब्राह्नणस्य हंतारं ततो धी यस्स मुञ्चति।।

( ब्राह्मणवग्गो श्लोक ३)

'ब्राह्नण पर वार नहीं करना चाहिये। और ब्राह्मण को प्रहारकर्ता पर कोप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण पर प्रहार करने वाले पर धिक्कार है।'

२:- ब्राह्मण कौन है:-

यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं।
संबुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
( श्लोक ५)

'जिसने काया,वाणी और मन से कोई दुष्कृत्य नहीं करता,जो तीनों कर्मपथों में सुरक्षित है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।

३:- अक्कोधनं वतवन्तं सीलवंतं अनुस्सदं।
दंतं अंतिमसारीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
अकक्कसं विञ्ञापनिं गिरं उदीरये।
याय नाभिसजे किंचि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
निधाय दंडभूतेसु तसेसु थावरेसु च।
यो न हंति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।

( श्लोक ७-९)'जो क्रोधरहित,व्रती,शीलवान,वितृष्ण है और दांत है, जिसका यह देह अंतिम है;जिससे कोई न डरे इस तरह अकर्कश,सार्थक और सत्यवाणी बोलता हो;जो चर अचर सभी के प्रति दंड का त्याग करके न किसी को मारता है न मारने की प्रेरणा करता है- उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं।।'

४:- गुण कर्म स्वभाव की वर्णव्यवस्था:-
न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्च च धम्मो च से सुची सो च ब्राह्मणो।।
( श्लोक ११)

' न जन्म कारण है न गोत्र कारण है, न जटाधारण से कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जो पवित्र है वही ब्राह्मण होता है।।

५:- आर्य धर्म के प्रति विचार:-

धम्मपद, अध्याय ३ सत्संगति प्रकरण :प्राग संज्ञा:-
साहु दस्सवमरियानं सन् निवासो सदा सुखो।( श्लोक ५)

"आर्यों का दर्शन सदा हितकर और सुखदायी है।"
धीरं च पञ्ञं च बहुस्सुतं च धोरय्हसीलं वतवन्तमरियं।
तं तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भजेथ नक्खत्तपथं व चंदिमा।।

( श्लोक ७)

" जैसे चंद्रमा नक्षत्र पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही सत्पुरुष का जो धीर,प्राज्ञ,बहुश्रुत,नेतृत्वशील,व्रती आर्य तथा बुद्धिमान है- का अनुसरण करें।।"
"तादिसं पंडितं भजे"- श्लोक ८

वाक्ताड़न करने वाले पंडित की उपासना भी सदा कल्याण करने वाली है।।"एते तयो कम्मपथे विसोधये आराधये मग्गमिसिप्पवेदितं" ( धम्मपद ११ प्रज्ञायोग श्लोक ५) " तीन कर्मपथों की शुद्धि करके ऋषियों के कहे मार्ग का अनुसरण करे"

धम्मपद पंडित प्रकरण १५/ में ७७ पंडित लक्षणम् में श्लोक १:- "अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो।।" सज्जन लोग आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं।"

परिणाम:- भगवान महात्मा गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणों की इतनी स्तुति की है तथा आर्य वैदिक धर्म का खुले रूप से गुणगान किया है। इसलिये बुद्ध के कहे अनुसार भीमसैनिक को भी ब्राह्मणों और आर्यों का सम्मान करना चाहिये। दूसरों में आकर बहकना नहीं चाहिए।

सलंग्न चित्र- महात्मा बुद्ध यज्ञोपवीत धारण किये हुए।

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