सन्त करे वो साधना, जगत करे अनुमोदना
पश्चिमी राजस्थान का बाड़मेर जिला थार नगरी, तेल नगरी सहित कई विरूदों व अन्य नामों के साथ-साथ धर्मनगरी के रूप में भी अपनी एक अलग व विशेष पहचान रखता है । जहां कदम-कदम पर धर्म की ध्वजा लहराती नजर आती है । बाड़मेर की इस महान भूमि पर जहां बड़ी तादाद में मन्दिर, मस्जिद, जिनालय आदि विद्यमान है वहीं इसी तपोभूमि ने थार वासियों को कई विरले सन्त भी दिये है । जिनकी तप, साधना आदि की बात ही अनूठी और निराली है । उन महान सन्तों के साधुत्व की महक से मरूधरा का कण-कण सुगंधित व सुशोभित है । आज हम थार नगरी बाड़मेर की धर्म नगरी एवं पाण्ड़वों की तप स्थली चौहटन के एक ऐसे महान व दुर्लभ सन्त की चर्चा और आत्मिक भावों से अनुमोदना कर रहे है । जिनका नाम ही अपने-आप में अद्भूत व अलौकिक है । जो तीन उज्ज्वल व विराट शब्दों के संयोग से बना है । उनका नाम है - यशोहीर विजय जी महाराज साहब । आप जैन धर्म की तपागच्छ परम्परा में दीक्षित होकर अनवरत संयम-साधना कर रहे है ।
बाड़मेर जिले की धर्म नगरी चौहटन नगर में पिछले 9-10 वर्षाें से एक ही स्थान पर स्थिर-वास करते हुए अपनी तप, साधना में लीन, संसार की उहापोह से मीलों दूर, भगवान महावीर के सिद्धान्तों को आत्मसात् करने वाले मुनिराज यशोहीर विजयजी मसा इस भाग-दौड़, दिखावे व पैसे की दुनिया में भी स्वयं को कीचड़ में उज्ज्वल कमल की तरह दैदीप्यमान रखे हुए है । एक बात अपने आप में स्वयंसिद्ध है कि जैन साधु-साध्वी भगवन्तों की साधना-आराधना बहुत ही अनूठी और विरली होती है । जैन धर्म के तपागच्छ में पूज्य नीतिसुरी जी समुदायवर्ती में दीक्षित परम पूज्य मुनिराज श्री यशोहीर विजय जी महाराजा साहब की उम्र तकरीबन 85 वर्ष से अधिक हो चुकी है । वहीं उनकी दीक्षा को भी 53 वर्ष से अधिक का समय हो गया है । मुनिराज पिछले 9-10 वर्षाें से मां वांकल के पवित्र व पावन क्षेत्र में विराजमान है । जहां जैन धर्मावलम्बी तो अच्छी संख्या है, परन्तु तपागच्छ परम्परा को मानने वाले नही के बराबर है । इस स्थिति के बावजूद मुनिराज की वैयावच्च व सेवा आदि का कार्य बेहद ही अनुकरणीय हो रहा है । मुनिश्री सादगी, सहजता व निस्पृहता के भावों से प्रभावित होकर जैनों के साथ-साथ जैनेतर समाज के लोग भी शराब, मांस आदि अभक्ष्य छोड़कर भगवान महावीर के सिद्धान्तों का अनुसरण कर रहे है । मुनिराज पिछले काफी समय से शरीर के प्रति पूर्ण रूप से निस्पृह और निर्मम भाव, हरी-सब्जी, फल आदि का लगभग 50 वर्ष से त्याग ,सूखा मेवा का भी अनेक वर्षों से त्याग, सभी 6 विगई का 8-9 वर्ष से पूर्णरूपेण त्याग, पूर्ण निर्दाेष गोचरी आदि जैसी अनुकरणीय तपस्या और त्याग का जीवन जी रहे है ।
मुनिराज जीवन केे 86 चातुर्मास पूर्ण होने और शरीर से एकदम कृष काया होते हुए भी लगभग पिछले एक-डेढ़ वर्ष से एकलठाणा का तप गतिमान पालन कर रहे है । अर्थात् मुनिराज प्रतिदिन 24 घंटे में 1 ही बार एक स्थान पर बैठकर आहार और पानी ग्रहण करना करते है । मुनिराज का आहार सादा और सात्विक होने के साथ-साथ निष्भाव व निःस्वाद रहता है । मुनिराज 86 वर्ष की उम्र के बाद भी प्रतिदिन नियमित प्रवचन, नवकार की 70 से अधिक पक्की माला का जाप करना सहित अपनी आत्मिक साधना-आराधना की ज्योत निरन्तर उज्ज्वल किए हुए है । वहीं सांसारिक सुख-सुविधाओं से बहुत दूर रहने वाले मुनिराज भयंकर गर्मी में भी छोटे से कमरे में स्थिरवास, अत्यंत अल्प परिग्रह अर्थात् अपरिग्रह सहित भगवान महावीर के नानाविध नियमों व सिद्धान्तों का परोक्ष पालन करते नजर आते है ।
मुनिराज के साधु जीवन की जितनी महिमा कही और बताई जाएं उतनी कम है । जीवन के तमाम प्रकार के कषायों पर विजय हासिल करने वाले विरले व अनूठे सन्त यशोवीर विजयजी मसा ही हो सकते है । दुनिया में इस प्रकार के निःस्पृह व आत्मिक साधना में लीन साधु मिलना बहुत ही दुर्लभ व विरला कार्य है । ऐसे दुर्लभ व महान सन्त को जगत का प्राणीमात्र कोटि-कोटि अभिनन्दन व वन्दन करता है ।
मुकेश बोहरा अमन
साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता
बाड़मेर राजस्थान
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